यह खबर चारों तरफ आग की तरह फैल गई कि मैं देश-सेवा के लिए उतरने वाला हूँ।
जिसने सुना, भागा आया और मेरे निर्णय की दाद दी। सुना, आप देश-सेवा के लिए उतर
रहे हैं। ईश्वर देश का भला करें!
बाइ द वे, शुरुआत कहाँ से कर रहे हैं? कौन सा एरिया चुन रहे हैं? हमारे अंचल
से करिए न! बहुत स्कोप है! हेलीपैड बनकर विकसित होने लायक इफरात जमीन पड़ी है।
आबो-हवा भी स्वास्थ्यप्रद है। ईश्वर की दया से गरीबी, भुखमरी और अशिक्षा आदि
किसी बात की कमी नहीं। लोग भी सीधे-सादे नादान किस्म के हैं - तो बहकने की कोई
गुंजाइश नहीं। वर्षों, सुख-शांति, अमन-चैन से गुजार सकेंगे, आप 'माई-बाप' इन
देश के लालों के साथ। ये हमेशा रोटी के लाले पड़े रहने पर भी कभी शिकवे-शिकायत
नहीं करते। हर हाल में मुँह सिलकर रहने की जबरदस्त ट्रेनिंग मिली है इन्हें।
मैंने सोचा, जगहें तो सारी एक सी हैं, ऐसे स्कोप कहाँ नहीं हैं! लेकिन जब कहा
जा रहा है, ऑफर मिला है तो उन्हीं के एरिया से शुरुआत हो जाए। मेरा निश्चय
सुनते ही प्रेसवाले दौड़े आए और आग की तरह फैलती इस खबर में घी डाल गए।
शाम को उस एरिया का सबसे बड़ा कांट्रेक्टर आया और सलाम करके बोला, 'बंगला कहाँ
छ्वेगा?'
मैं हैरान। कैसा बंगला? अभी देश-सेवा तो हुई नहीं कुछ, उससे पहले बंगला छवाने
आ गया!
उसने उसी अदब भरी मुस्तैदी से कहा, 'वही तो - जब तक बंगला नहीं छवेगा,
देश-सेवा, जनहित जैसे महान काम कहाँ बैठकर करेंगे आप? लोक-सेवक लोग आकर कहाँ
ठहरेंगे? मुलाकाती कहाँ लाइन लगाएँगे? संतरी कहाँ हड़काएगा उन्हें? फूस के छत
या टीन के शैड के नीचे मुलाकाती नहीं इकट्ठे होते। कोई बेवकूफ थोड़ी हैं। सीधी
सी बात है, जो अपने सर पर छत नहीं खड़ी कर पाया, वह उनके सिरों पर साया कहाँ से
करेगा? अपना नहीं तो कम-से-कम अपने दुख-दर्द सुनाने आनेवालों का तो खयाल
कीजिए।'
मैंने कहा, 'तब फिर छवा दीजिए, जहाँ ठीक समझिए।'
वह खुश हो गया। वहीं-का-वहीं बैठकर, नक्शा वगैरह खींचकर वह बोला, 'गेराज एक
रहेगा या दो?'
मैंने कहा, 'आरे यार! पहले कार तो हो।'
उसने कहा, 'आपकी न सही, मुलाकातियों की तो होगी! और फिर यों समझ लीजिए कि
बप्पा साहब को देशहित के पेवेलियन में कुल छह महीने ही गुजरे हैं और ऑलरेडी
दोनों बेटों की ट्रकों और स्टेशन-वैगनों के लिए जगह की कमी पड़ रही है।'
मैंने आज्ञाकारी बच्चे की तरह कहा, 'तब जैसा आप लोग उचित समझिए।'
कांट्रेक्टर खुश हो गया, 'ऐसा करते हैं, एक गेराज बना देंगे और दो की जगह छोड़
देते हैं। पोर्च पोर्टिको आलीशान बनाएँगे, नहीं संतरी टुटपुंजिए मुलाकातियों
को रूआब से दुतकारेगा कैसे? संतरी जितना कटखना होता है, आदमी उतना ही
पहुँचवाला माना जाता है। ...अच्छा, मैं चलता हूँ। बँगले का अहाता, लॉन सींचने,
साग-सब्जी, फूल-पत्तों की क्यारी सँवारने के लिए मेरा एक आदमी है, बड़ा नेक और
विश्वासपात्र। इस काम के लिए उसी को रखिएगा, जनहित जैसे काम करने जा रहे हैं
तो इस एरिया के नक्कालों से सावधान रहने की जरूरत है।'
शाम को उस एरिया के व्यापारी संगठन का प्रमुख आया और आजिजी से बोला,
'देश-सेवियों का भोजन तो अत्यंत संतुलित और नियमित होता है। बप्पा साहब तो
अनाज को हाथ नहीं लगाते थे और देख लीजिए, काठी ऐसी कि सत्तर की उम्र में भी
सत्ताईसवालों को बगल में दबाकर घूमें। अखाड़ेबाजों-से सधा हुआ, तना हुआ शरीर...
सिर्फ मीनू की बदौलत ही तो! बाई द वे आपकी मीनू?'
मैंने झेंपकर कहा, 'अभी बनाया नहीं।'
उसने ताकीद की, 'तो झटपट बना लीजिए - खान-पान की दुरुस्ती पहले। आप जानो
रूखी-सूखी वाले महात्मा को कौन पूछता है? मेरा तो आज तक किसी नमक-रोटी
खानेवाली महान आत्मा से साबका पड़ा नहीं। मेरे देखते-देखते कितने ही जनसेवक
नमक, रोटी, प्याज से शुरू होकर फल, दूध और सूखे मेवोंवाले मीनू पार हस्तांतरित
हो आज तक स्वास्थ्य-लाभ कर रहे हैं।'
मैंने संकोच से कहा, 'सूखे मेवे तो गरिष्ट होंगे। सोचता हूँ शुरू-शुरू में
रोटी-दाल ही ठीक रहेगा।
उसने फौरन टोककर कहा, 'देखिए आप दाल-रोटी खाइए या नमक-रोटी, एक बात समझ लीजिए,
पर भड़कानेवाले बहुत हैं - घर-घर यह बात पहुँच जाएगी कि जो खुद नमक-रोटी खाता
है वह हमें मालपूए कहाँ से खिलाएगा! और इस एरिया के लोग भोले-भोले, नादान
हैं।'
मैंने कहा, 'आपकी बात ठीक हैं लेकिन मेवे बहुत महँगे भी तो हैं!'
वह बेतकल्लुफी से बोला, क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं आप? आप इस एरिया के जनसेवक
होकर आ रहे हैं और खरीदकर मेवे खाएँगे? लानत नहीं होगी इस जमीन के बाशिंदों के
लिए? आखिर हम किस मर्ज की दवा हैं! आज ही सूखे मेवे का एक टोकरा भेज देते
हैं।'
मैंने जल्दी से कहा, 'नहीं-नहीं आपके मेवे...'
उन्होंने बात काटकर कहा, 'उन्हें मेरे मेवे नहीं, देश-सेवा के मेवे समझकर
खाइएगा, बस! वैसे भी आप चखकर देखिएगा तब समझिएगा कि खरीदकर खाए मेवों में वो
स्वाद और लज्जत कहाँ जो देश-सेवा से प्राप्त मेवे में होती है! पैसों की चिंता
मत कीजिएगा! मुझे आप पर भरोसा है; मेरे पैसे कहीं नहीं जाएँगे। सब वसूल हो
जाएगा।'
अगले दिन उस एरिया का नामी-गिरामी दर्जी आया और बड़े प्यार से मुझे अपने फीते
में जकड़ते हुए बोला, 'आप फिक्र न कीजिए। मुझे सब अंदाजा है। बप्पा साहब से
मैंने पहली बार नाप लेते वक्त ही कह दिया था कि अगली अचकन और पाजामे के लिए
कम-से-कम पौना-पौना मीटर कपड़ा ज्यादा लाइएगा। और वही हुआ! वैसे ही आप भी
करिएगा... लिबास तो यही रखेंगे न! रखना भी चाहिए। शुभ्र, स्वच्छ, बकुल-पंखी -
अर्थात बगुले की सफेद शफ्फाक। हर मौके और हर जगह के लिए पूरी तरह दुरुस्त।
जमाने की हवा सर्द हो या गरम, ये वस्त्र पूरी तरह वातानुकूलित रहते हैं। समझ
लीजिए, लिफाफे हैं जो अपना मजमून बदलते रहते हैं। कोई बाहर से इनके अंदर का
मजमून भाँप नहीं सकता। और इधर तो इस लिबास की महिमा और बढ़ गई है। इतिहास बताता
है कि पहले इस लिबास को महान लूग पहनते थे, अब इसे जो पहन लेता है, तुरत-फुरत
महान हो जाता है।'
अगले दिन सुबह-सुबह तेल-पिलाई लाठी और बुल-वर्करी सीनेवाली एक मुच्छड़ आया और
सलाम ठोंककर बोला, 'मैं संतरी हूँ, सिर्फ देश-सेवियों के पोर्टिकों और पोर्चों
के लिए समर्पित। अब तक की सारी जिंदगी समझ लीजिए, देश-सेवी फाटकों और पोर्चों
पर ही कुर्बान की है। खिदमत में कोई कोर-कसार नहीं रहेगी, इसका भरोसा रखें।
बप्पा साहब ने तो पूरी हक-हुकूमत दे रखी थी। जिसे चाहता, अंदर जाने देता और
जिसे चाहता, चार धक्के दे, कालर पकड़ बहार कर देता। बप्पा साहब कभी दखल न देते
थे। अहा, क्या आदमी थे! कभी पूछ-पैरवी की ही नहीं। मेरी वजह से कभी टुटपुंजिए,
फटेहाल मुलाकाती उनके पास फटक ही नहीं पाए। समझ लीजिए, वे तो नाम के मंत्री
थे। असली मंत्री तो मैं यानी उनका संतरी ही हुआ करता था। अब आपको क्या बताना,
समझ लीजिए, एक तरह से पूरे देश की बागडोर संतरियों के हाथ में ही होती है...
अच्छा, चलता हूँ। फाटक, पोर्टिको तैयार हो जाए तो बुलवा लीजिएगा। यह रहा मेरा
विजिटिंग कार्ड। मेरे सिवा कोई और यहाँ संतरी न होने पाए, इसका ख्याल रखिएगा।
यह ओहदा जिस-तिस को सौंपने लायक नहीं। बड़ी जिम्मेदारी, बड़े जोखिम का काम है।
हाँ, साँझ को इस इलाके के कुछ और नामी-गिरामी, ताबेदार लोग आपसे दुआ-सलाम किया
चाहते हैं, जिससे आपको पूरा इत्मीनान हो सके।'
शाम को सर पे टोपी लाल, गले में रेशम का रूमाल बाँधे वे लोग भी आए और मुझे
पूरा भरोसा दिला गए कि 'हमारे रहते इस पूरे इलाके में किसी की हिम्मत नहीं जो
आपके काम में दखल दे। न आपकी तरफ कोई आँख उठा सकता है, न कोई इन्क्वायरी बैठ
सकती है। हम जो हैं! आप तो बस खाइए और चैन से सोते हुए देश की खुशहाली का सपना
देखिए। किसी की मजाल नहीं जो कोई रोड़ा अटकाए। अटकाए तो हमें तलब कीजिएगा। इसी
तरह हमें पूरा भरोसा है कि आपके रहते हम पर आँच न आने पाएगी। है कि नहीं? न
हमारा काम रुके न आपका। बप्पा साहब जब तक रहे, अपनी बात रखी, हम निर्द्वंद्व
घूमते रहे। अब यह जिम्मेदारी आप पर है। आप अपना हाथ हमारे सर पर रख दें तो
हमें भी इत्मीनान हो जाए।'
मैंने ससंकोच उन्हें समझाने की कोशिश की, 'लगता है, आप लोगो को कुछ गलतफहमी हो
गई है। मैं तो यहाँ देश-सेवा के इरादे से आया हूँ।'
उन्होंने फौरन कहा, 'लीजिए, तो हम कौन से देश के बाहर हैं! हम भी तो उसी देश
के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है - प्रदूषण की। हमें कोई गलतफहमी नहीं
जी! और एक बात आपको भी याद दिला दें कि आप भी किसी गलतफहमी में न पड़िएगा। यह
इलाका जितना आपका है उतना ही हमारा। इतना ध्यान रखिएगा, देश-सेवा के क्षेत्र
में रहकर हमारे जैसे देशवासियों से द्रोह न मोल लीजिएगा। बाकी जिम्मेदारी
हमारी। न वोट की कमी होने देंगे, न नोट की। आप चैन से सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र
के पिछड़े हुए तमाम काम कीजिए, चाहे काम तमाम कीजिए।'
इस प्रकार धमकी भरे आश्वासन और आश्वासन भरी धमकियाँ देते हुए भूतपूर्व मंत्री
के संतरी और उसके बिरादरों ने अपने-अपने क्षेत्रों को गमन किया तथा उस
विचारोत्तेजक धमकी से प्रेरित हुआ मैं, ओ मेरे क्षेत्रवासियों, आपके नाम यह
संदेशनुमा धमकी जारी करता हूँ कि चूँकि मुझे अब भरोसेमंद साथी मिल गए हैं, अतः
मैं बेखौफ, बेहिचक आपके क्षेत्र की सेवा के अखाड़े में कूदने वाला हूँ। सावधान!